Shanti Munda: पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी में अपने टिन की छत वाले घर में रहने वाली 82 साल की शांति मुंडा नक्सलबाड़ी आंदोलन के आखिरी जिंदा सदस्यों में से एक है.
13 April, 2024
Shanti Munda: पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी में अपने टिन की छत वाले घर में रहने वाली 82 साल की शांति मुंडा नक्सलबाड़ी आंदोलन के आखिरी जिंदा सदस्यों में से एक है. अब वह लोकतंत्र के उत्सव में एक आम वोटर की तरह अपना वोट डालने का इंतजार कर रही हैं. वहीं, जब उनसे सवाल किया गया कि किस पार्टी के आने से डेवलपमेंट हो सकता है तो उन्होंने कहा कि ‘आने से कुछ नहीं होगा, हम लोग सीधा बात बोलते हैं जो जाता है लंका में वही हो जाता है रावण राजा.’
चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेने में करती हैं भरोसा
शांति मुंडा कभी पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन के संस्थापक सदस्यों में से एक कानू सान्याल की करीबी सहयोगी थीं. नक्सलबाड़ी आंदोलन जमींदारों और साहूकारों के खिलाफ एक सशस्त्र किसान विद्रोह था जो 1960 के दशक के आखिर में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ था. शांति मुंडा को नक्सलबाड़ी आंदोलन के हिंसक मोड़ लेने का दुख है. उनका कहना है कि वह चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेने में भरोसा करती हैं. शांति मुंडा तमाम राजनैतिक दलों के नेताओं की ओर से किए गए वादों पर भी सवाल उठाती हैं. वह याद करती है कि इलाके के पूर्व सांसदों ने कैसे लोगों के भरोसे को तोड़ा है. पूर्व सांसदों ने कहा था कि हम इसे आदर्श ग्राम बनाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
कौन है शांति मुंडा
बता दें कि शांति मुंडा एक भारतीय कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी नेता हैं. नक्सलबाड़ी आंदोलन के जीवित विद्रोहियों में से वो एक हैं. उनको इस आंदोलन में एक प्रमुख महिला नेता के रूप में याद किया जाता है. शांति मुंडा ने कानू सान्याल सहित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महत्वपूर्ण नेताओं के साथ काम किया था. वो एक गरीब किसान की बेटी थी, ऐसे में उन्होंने भारतीय किसानों के शोषण और उत्पीड़न को करीब से समझा था. शांति मुंडा ने आंदोलन के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को ज्वाइन कर लिया था.
दार्जिलिंग जिले एक छोटे से गांव से शुरू हुआ था आंदोलन
नक्सलबाड़ी आंदोलन साल 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले एक छोटे से गांव से शुरू हुआ था. यह एक किसान विद्रोह था. जिसका नेतृत्व वहां के किसानों ने किया था. सभी किसान चाय बागानों में काम करते थे. इन किसानों ने जमींदारों और साहूकारों के हाथों उत्पीड़न और शोषण को सहा था. जिस जमीन पर उन्होंने काम किया था,उनकी मांग की थी कि वो उस जमीन को वापस लेना चाहते थे. शांति मुंडा की जब सबसे छोटी बेटी केवल 15 दिन की थी तो उन्होंने अपने बच्चे को पीठ पर लादकर अन्य नेताओं के साथ इस अभियान का नेतृत्व किया था.
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