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Iran-Israel Relation: कैसे कट्टर दोस्त से एक-दूसरे के खून के प्यासे बन गए इजराइल और ईरान?

by Divyansh Sharma
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Introduction Of Iran-Israel Relation

Iran-Israel Relation: कुछ दिनों पहले इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने ईरान के परमाणु कार्यक्रमों को बर्बाद करने की कसम खाई थी. इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने 16 फरवरी को अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो से मुलाकात के बाद कहा था कि इजराइल और अमेरिका ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं और मिडिल-ईस्ट में उसके प्रभाव को विफल करने के लिए दृढ़ हैं. साथ ही कहा था कि दोनों देश इस बात पर सहमत हुए हैं कि अयातुल्लाओं के पास परमाणु हथियार नहीं होने चाहिए.

वहीं, अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने कहा था कि हर आतंकी समूह और हर हिंसात्मक काम के पीछे ईरान का ही हाथ होता है. इस बीच बड़ी जानकारी सामने आई थी कि इजराइल इस साल में कभी भी ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर हमला कर सकता है. अब इजराइल की धमकियों को लेकर माना जा रहा है कि यह मिडिल-ईस्ट में नए तनाव को जन्म दे सकती है. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि इजराइल और ईरान के बीच इतनी दुश्मनी की वजह क्या है.

Table Of content

  • क्या है Iran-Israel की दोस्ती की कहानी?
  • क्यों खत्म हुई थी Iran-Israel की दोस्ती?
  • Iran-Israel की दोस्ती का क्या हुआ क्रांति के बाद?
  • क्या प्रॉक्सी मिलिशिया ने बिगाड़े Iran-Israel के संबंध?
  • परमाणु कार्यक्रम ने कैसे Iran-Israel को किया दूर?

क्या है Iran-Israel की दोस्ती की कहानी?

बता दें कि हाल के समय में ईरान-इजराइल के संबंध सबसे ज्यादा तनावपूर्ण हैं. हालांकि, साल 1948 में इजराइल के गठन के बाद तुर्की के बाद ईरान सबसे दूसरा मुस्लिम देश था, जिसने इजराइल को देश के रूप में मान्यता दी थी. फिर ऐसा क्या हुआ, जो दोनों देश एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए. दरअसल, साल 1979 में ईरान की इस्लामी क्रांति हुई थी.

इसके बाद ईरान को एक इस्लामी गणराज्य घोषित कर दिया गया था. क्रांति के कारण पहलवी वंश का अंत हो गया और अयातुल्ला रूहोल्लाह खोमैनी ईरान के नए प्रमुख बने. इससे पहले तक ईरान-इजराइल के संबंध सबसे खास रहे. ईरान पर आधी सदी से ज्यादा समय तक पहलवी राजवंश का शासन रहा और इसी समय नए इजराइल राज्य को मान्यता देने वाले दूसरे मुस्लिम देशों में से एक बना था. ईरान में उस समय दूसरे पहलवी राजा मोहम्मद रजा पहलवी शाह का राज था.

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मोहम्मद रजा पहलवी शाह

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साल 1947 में संयुक्त राष्ट्र ने एक विशेष समिति का गठन किया था, जिसमें से एक ईरान भी था. इस समिति को फिलिस्तीन के लिए समाधान खोजना था. कई इतिहासकारों का मानना है कि क्रांति से पहले ईरान ने जायोनी समर्थक पश्चिम और जायोनी आंदोलन के साथ-साथ अपने अरब और मुस्लिम पड़ोसी देशों के साथ भी सकारात्मक संबंध बनाए रखने का प्रयास किया.

साल 1948 में पहले अरब-इजराइल युद्ध के दौरान इजराइल ने कई जगहों पर कब्जा कर लिया. साथ ही फिलिस्तीनियों का पहला नकबा (फिलिस्तीनी अपने जबरन विस्थापन और बेदखली को नकबा कहते हैं. इसका अरबी में अर्थ तबाही होता है) शुरू हुआ. ईरान ने इस पर चुप्पी साध ली. माना जाता है कि इस दौरान गाजा पट्टी के पास 2,000 ईरानी भी रहते थे और युद्ध के दौरान इजराइली सेना ने उनकी संपत्तियों पर भी कब्जा कर लिया था.

क्यों खत्म हुई थी Iran-Israel की दोस्ती?

साल 1951 में मोहम्मद मोसादेग ईरान के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने तेल इंडस्ट्री को बढ़ावा देने के लिए इजराइल से संबंध तोड़ लिए. दरअसल, ईरान का मुख्य उद्देश्य तेल इंडस्ट्री को बढ़ावा देने और ब्रिटिश शासन का मुकाबला करने के लिए आसपास के अरब राज्यों से समर्थन हासिल करना था. ऐसे में उन्होंने इजराइल से रिश्ता तोड़ लिया. मोहम्मद मोसादेग की सत्ता को तथाकथित ब्रिटेन और अमेरिका की खुफिया एजेंसियों ने मोहम्मद मोसादेग की सरकार को उखाड़ फेंक दिया.

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मोहम्मद मोसादेग

इसके बाद फिर से मोहम्मद रजा पहलवी शाह को फिर से सत्ता में ला दिया. इसके बाद ईरान फिर से पश्चिमी देशों और इजराइल का कट्टर सहयोगी बन गया. 1970 के दशक में दोनों देशों के बीच राजदूत भी नियुक्त कर दिए गए. साथ ही इजराइल के लिए ईरान तेल का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया. दोनों ने मिलकर एक पाइपलाइन की भी स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य ईरानी तेल को इजराइल और फिर यूरोप भेजना था. साथ ही दोनों देशों के बीच सैन्य सहयोग भी हुआ. कई मीडिया रिपोर्ट में दावा किया जाता है कि SAVAK यानि ईरानी सुरक्षा और खुफिया सेवा को इजराइल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने ही प्रशिक्षित किया था.

Iran-Israel की दोस्ती का क्या हुआ क्रांति के बाद?

साल 1979 में इस्लामी क्रांति में मोहम्मद रजा पहलवी शाह को उखाड़ फेंका और एक नए इस्लामी गणराज्य ईरान का जन्म हुआ. मोहम्मद रजा पहलवी शाह को सत्ता से हटाने के बाद ईरान के नए सर्वोच्च नेता अयातुल्ला रूहोल्लाह खोमैनी ने अहंकारी विश्व शक्तियों के खिलाफ खड़े होने की सबसे बड़ी नीति अपनाई. उनके शासन के दौरान ईरान में अमेरिका को बड़े शैतान और इजराइल को छोटे शैतान के रूप में जाना जाने लगा. अयातुल्ला रूहोल्लाह खोमैनी ने ईरान के लिए नई रणनीति बनाई, जिसमें इस्लाम का समर्थन करना था. साथ ही कथित अहंकारी विश्व शक्तियों की ओर से हितों की पूर्ति के लिए फिलिस्तीनियों सहित अन्य लोगों पर अत्याचार करने के खिलाफ खड़ा होना था.

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अयातुल्ला रूहोल्लाह खोमैनी

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साथ ही 1980 के दशक में ईरान ने इजराइल के साथ सभी संबंध समाप्त कर दिए. दोनों देशों के बीच की यात्रा को भी बंद कर दिया गया. ईरान की राजधानी तेहरान में स्थित इजराइली दूतावास को फिलिस्तीनी दूतावास में बदल दिया गया. इस्लामी दुनिया में अपनी नेतृत्व की साख बढ़ाने के लिए ईरान ने फिलीस्तीनी मुद्दे का समर्थन करना जारी रखा. इसी बीच ईरान के समर्थन से प्रॉक्सी मिलिशिया ने जन्म लिया और दोनों देशों के संबंध बद से बदतर होते चले गए. ईरान ने सीरिया, इराक, लेबनान और यमन में प्रॉक्सी मिलिशिया और अन्य समूहों के निर्माण को फंड किया. इसमें हिजबुल्लाह और हमास प्रमुख हैं.

क्या प्रॉक्सी मिलिशिया ने बिगाड़े Iran-Israel के संबंध?

ईरान ने लंबे समय से फिलिस्तीन के विवादित क्षेत्र में सशस्त्र समूहों का समर्थन किया है. सशस्त्र समूहों ने इजराइल के साथ-साथ अमेरिकी सैनिकों को भी निशाना बनाया है. इसमें सबसे प्रमुख है हिजबुल्लाह. हिजबुल्लाह का गठन साल 1980 में दक्षिणी लेबनान में इजराइली कब्जे से लड़ने के लिए किया गया था. ईरान बड़े पैमाने पर हमास का भी समर्थन करता है. हमास के ही लड़ाकों ने इजराइल में घुसकर 7 अक्टूबर 2023 को नरसंहार मचाया था, जिसके बाद इजराइल-हमास के बीच युद्ध छिड़ गया था. ईरान ने यमन में हुती विद्रोहियों को भी समर्थन दिया है.

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हुती विद्रोहियों ने लाल सागर के किनारे स्थित इजराइली रिसॉर्ट शहर ईलात पर बैलिस्टिक मिसाइलें दागी हैं. हुती विद्रोहियों इजराइल के साथ ही अमेरिकी और अन्य देशों के व्यापारिक जहाजों को निशाना बनाया है. इजराइल का मानना है कि ईरान ही इन सशस्त्र समूहों को मिसाइल और अन्य हथियार भेज रहा है. पिछले साल 1 अप्रैल को इजराइल ने सीरिया में हमला किया था. इस हमले में इजराइल का वाणिज्य दूतावास भी निशाना बनाया गया था. इसी हमले में एक ईरानी जनरल भी मारा गया था. इसके बाद ईरान ने 300 से ज्यादा बैलेस्टिक मिसाइलों के साथ इजराइल पर हमला किया था.

परमाणु कार्यक्रम ने कैसे Iran-Israel को किया दूर?

दूसरी ओर ईरान के परमाणु कार्यक्रम ने इस दुश्मनी की आग में घी डालने का काम किया. ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को शांतिपूर्ण बताता है. फिर भी वह पूरी तरह से इजराइली हमलों का मुख्य केंद्र रहा है. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक ईरान मानता है कि इजराइल और अमेरिका ने 2000 के दशक की शुरुआत में ईरान के परमाणु कार्यक्रम के लिए यूरेनियम को समृद्ध करने वाले सेंट्रीफ्यूज को निशाना बनाने के लिए स्टक्सनेट कंप्यूटर वायरस की शुरुआत की थी.

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ईरान का दावा है कि इजराइल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने कई टॉप परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फखरीजादेह समेत कई वैज्ञानिकों को मार चुका है. मोहसिन फखरीजादेह को साल 2020 में पिकअप ट्रक के पीछे लगे सैटेलाइट-मॉनीटर और AI लैस मशीन गन से गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. सबूत नष्ट करने के लिए ट्रक में विस्फोट कर दिया गया था. यह लड़ाई अभी भी जारी है.

हालांकि, ईरान लगातार इस बात पर जोर दे रहा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम 100 फीसदी शांतिपूर्ण है, लेकिन अमेरिका और इजराइल समेत कई देशों का मानना है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम एशिया समेत कई देशों के लिए खतरा है. यूरेनियम कणों की खोज के बारे में भी ईरान ने संयुक्त राष्ट्र परमाणु निगरानी एजेंसी को कभी नहीं बताया. ऐसे में अमेरिका और इजराइल ईरान के इरादों पर संदेह करते हैं. इजराइल के बारे में माना जाता है कि उसके पास गुप्त रूप से दर्जनों परमाणु हथियार हैं. उसने कई मौकों पर धमकी दी है कि वह ईरान को कभी भी परमाणु बम विकसित नहीं करने देगा.

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Conclusion Of Iran-Israel

बता दें कि अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता संभालते ही इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याह ने भी ईरान परमाणु कार्यक्रमों को बर्बाद करने की कसम खाई है. वहीं, ईरान ने जवाबी कार्रवाई करने की प्रतिज्ञा कर ली है. दूसरी ओर ईरान पूरी तरह से इस्लामवादी कट्टरपंथियों के नियंत्रण में है. इजराइल का नेतृत्व रूढ़िवादी कर रहे हैं. ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई भी इजराइल को दोषी ठहराते हैं और कई मौकों पर दंडित करने की बात कह चुके हैं.

ऐसे में दोनों देशों के बीच संबंधों में सौहार्दपूर्ण वापसी की संभावना कम ही दिखती है. हालांकि, मिडिल-ईस्ट कई अरब देशों ने इजरायल के साथ अपने संबंधों को सामान्य बनाने का निर्णय लिया है. हमास युद्ध में अरब देशों ने कई बार कड़ा रुख भी अपनाया है. फिर भी अरब देश पश्चिमी समर्थन की अधिक चाहत रखते हैं. मिडिल-ईस्ट के दूसरे शक्तिशाली देश सऊदी अरब ने मार्च में चीन की मध्यस्थता में हुए समझौते के बाद सात साल के मतभेद के बाद साल 2023 में ईरान के साथ राजनयिक संबंध बहाल कर लिए.

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