Introduction
10 interesting things about Mirza Ghalib: ‘हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है, वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता’ मिर्जा गालिब को महान शायर बताने के लिए उनकी गजल का यह शेर ही काफी है. 200 साल बाद भी गालिब की शायरी सुनाई और गुनगुनाई जाती है. शायरी बदली, कहने का अंदाज बदला, वक्त बदला और सदियां बदल गईं, लेकिन मिर्जा गालिब की गजलों और नज्मों का जादू अब भी बरकरार है. उनकी गजलों के शेर जिंदगी का फलसफा हैं, जो लोगों के दिल को सुकून देते हैं. उन्होंने सिर्फ 11 साल की उम्र से ही कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं. एक कवि होने के साथ-साथ मिर्जा गालिब एक बेहतरीन पत्र लेखक भी थे.
खूबसूरत शब्दों में लिपटे उनके खत भी लाजवाब होते थे. उनकी नज्मों और गजलों की बात की जाए तो ये जीवन के दर्शन का लिबाज ओढ़े हुए हैं. यही वजह है कि हर उम्र के लोग उनकी शायरी को पसंद करते हैं. मिर्जा गालिब भले ही भारत में जन्में और शायरी की, लेकिन उनकी दीवानगी पूरे दक्षिण एशिया में है. इस स्टोरी में हम बताने जा रहे हैं मिर्जा गालिब की जिंदगी और शायरी से जुड़े अनसुने किस्से.
Table Of Content
- मदिरापान के साथ गालिब को था जुआ खेलने का शौक
- पंडित ने लगाया था गालिब के माथे पर टीका
- वाह रे बड़े मियां, बर्फी हिंदू और इमरती मुसलमान
- नहीं थी कोई संतान
- बचपन में ही खो दिया था माता-पिता को
- 13 साल की उम्र में शादी
- 11 वर्ष की उम्र में शुरू कर दिया था लिखना
- मिले थे कई पुरस्कार
- गधे भी आम नहीं खाते
- बल्लीमारान से गालिब का रिश्ता
मदिरापान के साथ गालिब को था जुआ खेलने का शौक
मिर्जा गालिब ने अपने जीवन में जो भी किया वो बेइंतहा किया. शराब पीने का शौक तो था ही फिर जुआ खेलने का शौक भी शायर ने पाल लिया. वह अक्सर जुआ खेलते थे. जुआ खेलने के चक्कर में गालिब को साल 1847 में जेल भी जाना पड़ा था. इसकी वजह उनका जुआ खेलना था. अंग्रेज सरकार ने उस वक्त उन पर 200 रुपये का जुर्माना और जेल की सजा दी थी. एक बार जुआ खेलने के दौरान शहर का कोतवाल पहुंच गया. कोतवाल के आने की आहट हुई तो सभी लोग भाग गए, लेकिन गालिब उसी जगह बैठे रहे. फिर खड़े होकर जाने लगे. इस बीच वह कोतवाल से टकरा गए. फिर कोतवाल ने गालिब से पूछा- जुआ खेल रहे थे? इस सवाल के जवाब में गालिब ने कहा- ‘हां खेल तो रहे थे, लेकिन आपने रंग में भंग डाल दिया’ यह जवाब सुनकर कोतवाल तिलमिला गया और धमकी दी कि जिस दिन जुआ खेलते पकड़ा तो जेल में डाल दूंगा.
इसके बाद यह कोतवाल उनकी जिंदगी में एक किरदार की तरह शामिल हो गया. दरअसल, मिर्जा गालिब ने एक दिन गली से गुजरने के दौरान तवायफ की आवाज में अपनी ही लिखी गजल सुनी. फिर क्या गालिब ने कोठे का रुख किया. दिलचस्प बात यह थी कि कोतवाल भी इसी कोठे पर तवायफ से मिलने आता था. समय बीतने के साथ उनके और उनकी गजल गाने वाली तवायफ के बीच की दूरियां भी कम हो गई थीं, लेकिन जब कोतवाल को इसका पता चला तो उसने तवायफ को वहां से चले जाने पर मजबूर कर दिया. गालिब को तवायफ का इस तरह चले जाना खला. कहा जाता है कि उस तवायफ की याद में भी गालिब ने कई गजलें लिखीं.
पंडित ने लगाया था गालिब के माथे पर टीका
उर्दू-फारसी के महान शायर मिर्जा गालिब बेहद बिंदास जिंदगी जीते थे. धर्म को मानते थे, लेकिन इतना कि वह उनके जीने के तरीके को प्रभावित नहीं करे. यह भाव उनकी शायरी में भी झलकता है. गालिब की सबसे अच्छी और काबिलेगौर बात यह थी कि उन्होंने खुद को हिंदू या मुस्लिम से ऊपर रखा था. जिंदगी को अलग ही अंदाज में जीने वाले शायर मिर्जा गालिब को न तो माथे पर आरती के बाद टीका लगवाने से परहेज था और न ही पूजा का प्रसाद खाने से कोई गुरेज था. कहा जाता है कि एक दीवाली की रात अपने एक हिंदू दोस्त के घर मौजूद थे. इसी दौरान आरती और फिर लक्ष्मी पूजन के बाद पंडित ने गालिब को छोड़ सभी के माथे पर टीका लगाया. इस पर गालिब ने एतराज जताते हुए कहा कि पंडित जी उन्हें भी लक्ष्मी के आशीर्वाद के तौर पर टीका लगा दें. इस पर पंडित ने उनके माथे पर भी टीका लगा दिया था.
वाह रे बड़े मियां, बर्फी हिंदू और इमरती मुसलमान
पंडित ने गालिब के माथे पर टीका लगाया तो प्रसाद भी दिया. हिंदू दोस्त के घर से निकले तो उनके दाएं हाथ में प्रसाद के तौर पर बर्फी थी. गालिब के हाथ की ओर इशारा करते हुए मुल्ला बोले कि मिर्जा साहब अब दीवाली की बर्फी खाओगे. यह सुनकर हाजिर जवाब गालिब रुके और पूछा कि बर्फी क्या हिंदू है? इस पर मुल्ला बोले और नहीं तो क्या? यह सुनकर शायर मिर्जा गालिब ने पूछ लिया कि इमरती हिंदू है या मुसलमान? यह सुनकर मुल्ला चुप हो गए क्योंकि उनके पास कोई जवाब नहीं था. कुछ पल के बाद गालिब उन्हें अकेला छोड़कर वहां से चले गए. गालिब कभी भी धर्म के बंधन में नहीं बंधे. वह धर्म के नियमों को करीब-करीब नहीं मानते थे. उनकी हमेशा स्वच्छंद उड़ने की ख्वाहिश रही. यही वजह है कि उन्होंने बिंदास जिंदगी जी.
नहीं थी कोई संतान
मिर्जा गालिब का पूरा नाम मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ ‘गालिब’ था. 27 दिसंबर, 1797 आगरा में जन्में गालिब को पूरी जिंदगी इस बात का मलाल रहा कि उनकी कोई औलाद नहीं थी. बीवी उमराव ने कई बच्चों को जन्म तो दिया लेकिन कोई भी संतान जी नहीं सकी. मिर्जा गालिब को पूरी जिंदगी औलाद की कमी खलती रही. गालिब की 7 संतानें हुईं, लेकिन उनमें से कोई भी कुछ महीनों से ज्यादा जिंदा नहीं रह पाईं. उनका यह दर्द उनकी गजलों और नज्मों में भी नजर आता है.
बचपन में ही खो दिया था माता-पिता को
बेशक हर मोहब्बत करने वाला आशिक मिर्जा गालिब की शायरी को जरूर पढ़ता है. जिंदगी की धुन गुनगुनानी हो तो उनकी शायरी कमाल है. बचपन में ही गालिब ने पिता को खो दिया. उनके पिता 1803 में एक युद्ध में शहीद हो गए. इसके बाद मामा ने उन्हें पालने की कोशिश की, लेकिन 1806 में हाथी से गिरकर उनकी भी मौत हो गई. मां के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन कहा जाता है कि उनकी मृत्यु भी जल्दी ही हो गई थी.
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यह जरूर कहा जाता है कि गालिब की मां कश्मीरी थीं. गालिब का भाई मिर्जा यूसुफ भी स्कित्जोफ्रेनिया नामक बीमारी का शिकार हो गया था और वो भी युवा अवस्था में ही चल बसा. आलोचकों का कहना है कि कम उम्र में ही माता-पिता को खोने के बाद मिले दर्द ने गालिब को एक बहुत ही संजीदा इंसान बना दिया.
13 साल की उम्र में शादी
बताया जाता है कि सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में मिर्जा गालिब का निकाह हो गया. 1810 में नवाब इलाही बक्श की बेटी उमराव बेगम से गालिब का निकाह हुआ. मोहब्बत से लबरेज गालिब को अपनी पत्नी से बहुत लगाव था लेकिन उनका रिश्ता कभी मोहब्बत की दहलीज को पार नहीं कर पाया. गालिब ने अपने खतों में लिखा था कि शादी दूसरी जेल की तरह है यानी वह शादी से खुश नहीं थे. उन्होंने लिखा है- पहली जेल जिंदगी ही है जिसका संघर्ष उसके साथ ही खत्म होता है.
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यह भी कहा जाता है कि गालिब को मुगल जान नाम की एक गाने वाली से काफी लगाव हो गया था. वह नाचती-गाती थी. उस दौरान पुरुषों का नाचने-गाने वाली महिलाओं के पास जाना आम था और गलत नहीं समझा जाता था, इसलिए जब मन करता वह मुगल जान के पास जाते. यह भी सच है कि मुगल जान पर जान छिड़कने वाले वो अकेले नहीं थे. उस समय का एक और शायर हातिम अली मेहर भी मुगल जान के लिए पलकें बिछाए हुए था. दरअसल, मुगल जान ने जब ये बात गालिब को बताई तो उन्हें गुस्सा नहीं आया और ना ही वो हातिम को अपना दुश्मन समझने लगे. इससे पहले कि गालिब और हातिम के बीच झगड़ा या विवाद बढ़ता उससे पहले ही मुगल जान की जान निकल गई यानी मौत हो गई.
जाहिर है कि हातिम और गालिब दोनों मुगलजान की जुदाई में दुखी हुए. गालिब ने एक खत के जरिए हातिम को बताया कि दोनों एक ही तरह का दुख महसूस कर रहे हैं. मुगल जान के दुनिया से जाने के बाद गालिब की जिंदगी में एक और महिला आई. वह एक इज्जतदार घराने से थी. ऐसे में समाज की बंदिशों और बदनामी के डर से उसने अपनी जिंदगी खत्म कर ली थी. इसके बाद गालिब दुखों के सागर में डूब गए थे. उसकी याद में उन्होंने ‘हाय हाय’ नामक गजल लिखी थी. यह इस बात को बयां करती है कि गालिब खुद उस महिला की कितनी इज्जत करते थे?
11 वर्ष की उम्र में शुरू कर दिया था लिखना
मिर्जा गालिब का पूरा नाम मिर्जा असदुल्लाह बेग खां था. उनका जन्म 27 दिसंबर, 1797 में उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ. उनके पिता का नाम अबदुल्ला बेग और माता का नाम इज्जत उत निसा बेगम था. गालिब के पिता उज्बेकिस्तान से भारत आए थे. गालिब की उर्दू, पर्शियन और तुर्की तीनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी. कहा जाता है कि उन्होंने 11 साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था. उन्हें हिन्दी और अरबी की भी जानकारी थी.
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गालिब की गजलें और नज्में इश्क को बयां करती हैं लेकिन उनकी निजी जिंदगी में उतनी ही मायूसी रही. इस्लाम में शराब पीने को हराम माना गया है, लेकिन गालिब इससे इत्तेफाक नहीं रखते थे. उन्हें महंगी और अंग्रेजी शराब ही पीना पसंद थी, इसके लिए वह मीलों सफर तय करते थे. कहा जाता है कि मिर्जा गालिब ने 11 साल की उम्र में ही उर्दू और फारसी में लेखन की शुरुआत कर दी थी. गालिब कभी भी कहीं भी शेर और गजलें बना लिया करते थे.
मिले थे कई पुरस्कार
1850 में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने मिर्जा गालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज्म-उद-दौला के खिताब से नवाजा. इसके बाद उन्हें मिर्जा नोशा का खिताब भी मिला. 15 फरवरी, 1869 को मिर्जा गालिब ने दुनिया को अलविदा कह दिया. उन्हें हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के पास दफनाया गया. गालिब की मौत के एक साल बाद उनकी पत्नी उमराव बेगम की भी मृत्यु हो गई. यहां पर बता दें कि उनकी मौत 15 फरवरी को हो गई, लेकिन यह बात 17 फरवरी को लोगों को पता चली.
गधे भी आम नहीं खाते
ऐसा कहा जाता है कि मुसलमान होने के बावजूद गालिब ने कभी रोजा नहीं रखा था. शायद यही वजह है कि वह खुद को आधा मुसलमान कहते थे. एक बार एक अंग्रेज अफसर ने पूछा तो उन्होंने बताया था कि मैं शराब पीता हूं, लेकिन सूअर नहीं खाता हूं. ऐसे में आधा मुसलमान हूं. गालिब महान शायर होने के साथ हाजिर जवाब इंसान भी थे. वह जवाब देने में जरा भी देर नहीं लगाते थे. कहा जाता है कि गालिब एक बार आम खा रहे थे.
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इस दौरान जमीन पर छिलके जमा कर लिए. वहां खड़े एक व्यक्ति ने उन छिलकों को अपने गधे को खाने के लिए दिया, लेकिन गधे ने उन छिलकों को खाने से इन्कार कर दिया. इस पर सज्जन व्यक्ति ने गालिब का मजाक उड़ाते हुए कहा कि गधे भी आम नहीं खाते हैं. इस पर गालिब ने अपनी हाजिर जवाबी का परिचय देते हुए कहा कि गधे ही आम नहीं खाते हैं.
बल्लीमारान से गालिब का रिश्ता
मिर्ज़ा ग़ालिब दरअसल, गली कासिम जान बल्लीमारान (चांदनी चौक) के जिस घर में रहा करते थे उसको मूल स्वरूप में संरक्षित और पुनःस्थापित कराया गया है. वर्तमान में इस घर में गालिब के जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रदर्शित करने के लिए एक संग्रहालय है. 27 दिसंबर 2000 को मिर्जा गालिब की जयंती पर इसका उद्घाटन किया गया था और इसे जनता के लिए भी खोला गया. आधिकारिक जानकारी के अनुसा, सोमवार और राजपत्रित अवकाशों को छोड़कर स्मारक सभी दिन (सुबह 11:00 बजे से शाम 6:00 बजे तक) आम जनता के लिए खुला रहता है. मिर्जा गालिब की जयंती पर प्रत्येक वर्ष गालिब मेमोरियल में उत्सव मनाया जाता है.
Conclusion
मिर्जा असदुल्लाह खान, जिन्हें मिर्जा गालिब के नाम से भी जाना जाता है दरअसल, वर्तमान युग के सबसे महान, कामयाब और सबसे मशहूर उर्दू शायरों में से एक हैं. गम हो, खुशी हो या फिर जिंदगी की बात, हर मूड की गजलें शायर मिर्जा गालिब ने लिखी हैं. ग़ालिब के समकालीन और भी कई शायर थे, जिन्होंने उम्दा नज़्में और ग़ज़लें लिखीं, लेकिन ग़ालिब जैसी कामयाबी किसी दूसरे शायर को नहीं मिली. आलोचकों और उर्दू साहित्य के बारे में जानने वालों का कहना है कि फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिंदुस्तानी जुबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है.
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