'इन शोख हसीनों की निराली है अदा भी...' पढ़ें कुंवर महेंद्र सिंह बेदी सहर के शेर.
उठा सुराही ये शीशा वो जाम ले साकी,
फिर इस के बाद खुदा का भी नाम ले साकी.
सुराही ये शीशा
फिर इस के बाद हमें तिश्नगी रहे न रहे,
कुछ और देर मुरव्वत से काम ले साकी.
हमें तिश्नगी
इन शोख हसीनों की निराली है अदा भी,
बुत हो के समझते हैं कि जैसे हैं खुदा भी.
हसीनों की निराली
परेशां थे तिरी महफिल से बाहर,
पशेमां हैं तिरी महफिल में आ कर.
महफिल से बाहर
जुस्तुजू उन की दर-ए-गैर पे ले आई है,
अब खुदा जाने कहां तक मिरी रुस्वाई है.
खुदा जाने
साकी मय सागर पैमाना मेरे बस की बात नहीं,
सिर्फ इन्हीं से दिल बहलाना मेरे बस की बात नहीं.
दिल बहलाना