'अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है', परवीन शाकिर के वह शेर जिन्हें पढ़कर प्रेम हो जाए.

चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया, इश्क के इस सफर ने तो मुझ को निढाल कर दिया.

इश्क के इस सफर

हम तो समझे थे कि इक जख्म है भर जाएगा, क्या खबर थी कि रग-ए-जां में उतर जाएगा.

इक जख्म है

दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आजाद हैं,   देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन.

दुश्मनों के साथ

वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया, बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता.

सब्र आ जाता

 अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है, जाग उठती हैं अजब ख्वाहिशें अंगड़ाई की.

अजब ख्वाहिशें

बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ से बात की, और हम ने रोते रोते दुपट्टे भिगो लिए.

तकल्लुफ से बात