'कुछ बता तू ही नशेमन का पता', पढ़ें मजरूह सुल्तानपुरी के शेर
कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा,
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा.
कोई सहारा
बहाने और भी होते जो जिंदगी के लिए,
हम एक बार तिरी आरजू भी खो देते.
तिरी आरजू
बचा लिया मुझे तूफा की मौज ने वरना,
किनारे वाले सफीना मिरा डुबो देते.
तूफा की मौज
जबां हमारी न समझा यहां कोई 'मजरूह',
हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे.
हम अजनबी
अब सोचते हैं लाएंगे तुझ सा कहां से हम,
उठने को उठ तो आए तिरे आस्तां से हम.
सोचते हैं लाएंगे
कुछ बता तू ही नशेमन का पता
मैं तो ऐ बाद-ए-सबा भूल गया
बाद-ए-सबा