Home Entertainment हिंदी सिनेमा के तानसेन तो कभी आवाज के जादूगर! कहां खो गया रफी साहब के गीतों का वो सुनहरा दौर?

हिंदी सिनेमा के तानसेन तो कभी आवाज के जादूगर! कहां खो गया रफी साहब के गीतों का वो सुनहरा दौर?

by Preeti Pal
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हिंदी सिनेमा के तानसेन तो कभी आवाज के जादूगर, कहां खो गया रफी साहब के गीतों का वो सुनहरा दौर?

Mohammed Rafi: एक वक्त था जब मोहम्मद रफी के गानों के बिना लोगों की शामें नीरस रह जाती थीं. वो खूबसूरत दौर भले ही गुजर गया मगर रफी साहब के गाने आज भी समा बांध देते हैं.

31 July, 2024

Mohammed Rafi: लोग मेरे ख़ाबों को चुराके ढालेंगे अफ़सानों में
मेरे दिल की आग बंटेगी दुनिया के परवानों में
वक़्त मेरे गीतों का ख़ज़ाना ढूंढेगा
दिल का सूना साज़ तराना ढूंढेगा, मुझको मेरे बाद ज़माना ढूंढेगा…

ये सिर्फ एक गीत की पंक्तियां नहीं बल्कि रफी साहब के प्रति लोगों का एहसास है.
हिंदी सिनेमा के इतिहास में 2 महान सिंगर हुए हैं जिनकी आवाज ने न सिर्फ लोगों के दिलों को बल्कि उनकी आत्मा को छुआ है. पहला नाम स्वर कोकिला लता मंगेशकर का और दूसरा हरफनमौला मोहम्मद रफी का. आज भले ही दोनों हमारे बीच नहीं हैं, मगर वो कहते हैं ना कि अच्छा कलाकार हमेशा जिंदा रहता है.. सच ही कहते हैं… क्योंकि मोहम्मद रफी का वो खूबसूरत दौर भले ही गुजर गया हो मगर रफी की आवाज का जादू आज भी लोगों के सिर चढ़कर बोलता है.

मोहम्मद रफी की आवाज से सजे गाने अभी भी हिट हैं, इन्हें सुनकर वो सुकून मिलता है जो आज के संगीत में कहीं महसूस नहीं होता. ‘चौदहवी का चांद’, ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’, ‘क्या हुआ तेरा वादा’, द’र्द-ए-दिल, दर्द-ए-जिगर’ जैसे गाने आपको फिर हिंदी सिनेमा के उसी गोल्डन इरा में ले जाते हैं.

मोहम्मद रफी का बचपन

मोहम्मद रफी का जन्म सन 1924 में अमृतसर के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुआ. यह जगह अब पाकिस्तान में है. जब वह करीब 7 साल के हुए तो रफी का परिवार काम के सिलसिले में लाहौर आ गया.उनके परिवार का संगीत से कोई लेना देना नहीं था, लेकिन मोहम्मद रफी में संगीत का कीड़ा पनपने लगा. दरअसल, उनके बड़े भाई की नाई की दुकान थी, रफी का ज्यादातर वक्त उसी दुकान पर गुजरता था. 7 साल की उम्र में वह उस दुकान के सामने से गुजरने वाले एक फकीर का पीछा किया करते थे जो गाते हुए वहां से निकला करता था. रफी दुकान पर बैठे-बैठे उस फकीर की तरह गाने की कोशिश किया करते थे. दुकान पर आने वाले ग्राहक रफी की आवाज की तारीफ करने लगे. फिर बड़े भाई ने म्यूजिक के लिए रफी का जज्बा देखा और उन्हें ‘उस्ताद अब्दुल वाहिद खान’ के पास संगीत की शिक्षा दिलवाने लगे.

मोहम्मद रफी का पहला ब्रेक

अक्सर हुनर को किस्मत का साथ मिल ही जाता है. मोहम्मद रफी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. बात कुछ ऐसी है कि एक बार लाहौर में उस समय के मशहूर सिंगर और एक्टर कुंदन लाल सहगल ‘आकाशवाणी’ के एक प्रोग्राम के लिए गाने पहुंचें. उनका गाना सुनने के लिए मोहम्मद रफी और उनके भाई भी गए. तभी बिजली गुल हुई और सहगल ने गाने से इन्कार कर दिया. ऐसे में भीड़ ने शोर मचाना शुरू कर दिया. बस फिर क्या था रफी के हाथ वो मौका लगा जिसकी उन्हें कब से तलाश थी. बड़े भाई ने शो के ऑर्गेनाइजर से बात की और कहा रफी को स्टेज पर गाने देंगे तो भीड़ भी शांत हो जाएगी.

13 साल की उम्र में पहली परफॉर्मेंस

परमीशन मिल गई और 13 साल के रफी चढ़ गए स्टेज पर. यह पहली बार था जब मोहम्मद रफी ने इतने लोगों के सामने गाना गाया. खास बात यह थी कि उस वक्त वहां मशहूर संगीतकार श्यमा सुंदर भी मौजूद थे. उन्हें रफी का गाना बहुत पसंद आया. वो इतने प्रभावित हुए कि मोहम्म रफी को अपने लिए गाने का ऑफर दे डाला. फिर 1944 में रफी ने पंजाबी फिल्म ‘गुल बलोच के लिए गीत गाए. 1946 में मोहम्मद रफी ने बंबई आने का फैसला किया और यहीं से उनका सुनहरा दौर शुरू हो गया.

यह भी पढ़ेंः‘बाबुल’ से ‘शोले’ तक, बॉलीवुड की वो फिल्में जिनमें ससुर ने निभाया पिता का फर्ज

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