What Is Delisting : आदिवासी समुदायों के बीच धर्म परिवर्तन (Religious Conversion) की बहस लंबे समय से चली रही है. एक पक्ष का कहना है कि हमारी परंपरा और संस्कृति को मानने वाले लोगों को ही आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए. जबकि दूसरे मत को रखने वाले लोगों का कहना है कि आरक्षण धर्म पर नहीं, बल्कि जन्म के आधार पर दिया गया है.
31 March, 2024
What Is Delisting : देश के कई प्रदेशों में अनुसूचित जनजाति (Schedule Tribes) समुदाय के कुछ लोग धर्म के आधार पर आरक्षण को लेकर एक-दूसरे के आमने-सामने हैं. वैसे तो अनुसूचित जनजाति समुदायों के बीच धार्मिक मामलों में थोड़े मतभेद तो हैं ही साथ ही साथ डीलिस्टिंग के मुद्दे ने उनके बीच में खाई को और बढ़ा दिया है.
डीलिस्टिंग है क्या?
सबसे पहला सवाल तो यह उठता है कि डीलिस्टिंग क्या है? जनजाति समुदाय के लोगों का कहना है कि आदिवासियों से संबंध रखने वालों ने ईसाई या अन्य धर्म को स्वीकार कर लिया है तो उन्हें अनुसूचित जनजाति से बाहर कर देना चाहिए. इसको ही डीलिस्टिंग कहा जा रहा है. इस बात को लेकर आदिवासी समुदाय दो गुटों बंट गया है.
झारखंड और छत्तीसगढ़ में धर्म परिवर्तन पर बहस छिड़ी
झारखंड और छत्तीसगढ़ में जनजातीय समुदाय के लोग धर्म परिवर्तन का विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि जिस किसी ने आदिवासी संस्कृति को छोड़ दिया है, उसको अनुसूचित जनजाति से मिलने वाले लाभ से बाहर कर देना चाहिए. उनका मानना है कि पूरे देश में आदिवासियों की एक संस्कृति और परंपरा होती है. सरकार ने संविधान में आरक्षण से लेकर जल-जंगल-जमीन का संरक्षण दिया है. कहा ये भी जा रहा है कि वर्तमान समय में कुछ जनजातीय समुदाय के लोगों ने इस संस्कृति को त्यागकर दूसरे धर्म की संस्कृति को भी अपना लिया है.
डीलिस्टिंग की मांग सांप्रदायिक तनाव बढ़ाना
आदिवासी समुदाय के लोगों के एक धड़े का कहना है कि जनजातीय समुदाय के जिस भी व्यक्ति ने ईसाई या इस्लाम धर्म अपनाया उसने आदिवासी परंपरा को छोड़ दिया है. पारंपरिक पूजा-पाठ को बंद कर दिया है. रुढ़िवाद संस्कृति को मानने से बंद कर दिया है तो उनको अब आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए. वहीं, दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों का कहना है कि डीलिस्टिंग की मांग सिर्फ समुदाय को बांटने और सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने के साथ वोट को भी बांटने की कोशिश की जा रही है.
कब आया डीलिस्टिंग का मामला
वर्ष 1967 में डीलिस्टिंग का मुद्दा तत्कालीन कांग्रेस नेता कार्तिक उरांव ने लोगों के बीच में उठाया था. इसके बाद संसद में भी इस पर बहस छिड़ी, लेकिन कुछ समय बाद ये मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया. डीलिस्टिंग के पक्ष में रहने वाले आदिवासी अपने को हिंदू धर्म से जुड़ा हुआ मानते हैं, लेकिन इसके विरोधियों का कहना है कि आदिवासियों की अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज और उनका स्वतंत्र धर्म है. वह किसी भी धर्म, पूजा पद्धति में विश्वास रखने के लिए स्वतंत्र हैं, इसलिए अगर वह इस अधिकार का इस्तेमाल करते हैं तो उनका आरक्षण खत्म नहीं हो सकता है. इसके साथ ही उनका कहना है कि आरक्षण जाति और समुदाय के आधार पर मिलता है, इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. अगर यह जन्म से है तो धर्म के आधार पर कैसे बदल सकता है?
SC-ST समुदाय के लोगों के लिए अलग सूची बनाई गई
आपको बताते चलें कि डीलिस्टिंग का मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह आदिवासी समुदाय की संस्कृति, आर्थिक-राजनीतिक अधिकारों के साथ सामाजिक पहचान से जुड़ा है. वहीं, संवैधानिक व्यवस्था को देखा जाए तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए एक अलग सूची बनाई गई है. अनुच्छेद 341 में एससी और आर्टिकल 342 में एसटी से संबंधित है जो विभिन्न जनजातियों और जातियों को सूचीबद्ध करता है, जिसमें परंपराओं, सांस्कृतिक विरासत, प्रथाओं, रीति-रिवाजों और जीवनशैली को अलग-अलग राज्यों में वर्गीकृत किया गया है.
आर्थिक और शैक्षिक स्तर पर पिछड़ापन
वहीं, ईसाई मिशनरियों का कहना है कि शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़ेपन को वह भलिभांति जानते हैं. यह पिछड़ापन शिक्षा के अभाव के कारण आया है. आदिवासियों समुदाय के लोगों को अगर आरक्षण का महत्व समझना है तो उन्हें शिक्षित होना बहुत जरूरी है और आदिवासी ईसाईयों को मिशनरी के द्वारा बनाए गए स्कूलों के माध्यम से अच्छी शिक्षा मिली है. यह शिक्षण संस्थान सभी वर्गों और धर्मों के लिए भी हैं. ईसाई आदिवासी समुदाय का सीधा सवाल यह है कि उनको हमारे अधिकारों से दिक्कत क्या है?
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